रविवार, 17 सितंबर 2023

ईवीआर पेरियार : भारतीय आधुनिकता के प्रस्तावक

ईवीआर पेरियार : भारतीय आधुनिकता के प्रस्तावक

जन्मदिन (17 सितंबर) सादर नमन

ईवीआर पेरियार का जन्म 17 सितंबर 1879 में हुआ था. उन्होंने उत्तर भारत के द्विजों की आर्य श्रेष्ठता, मर्दवादी दंभ, राष्ट्रवाद और शोषण-अन्याय के सभी रूपों को दी।

भारतीय समाज और व्यक्ति का मुकम्मल आधुनिकीकरण जिन चिंतकों के विचारों के आधार पर होना है, उनमें ई.वी. रामासामी पेरियार अग्रणी हैं. पेरियार ने उन सभी बिंदुओं को चिह्नित और रेखांकित किया है जिनका खात्मा भारतीय समाज के आधुनिकीकरण की अनिवार्य शर्त है.

ई.वी. रामासामी नायकर ‘पेरियार’ भारत की प्रगतिशील श्रमण बहुजन-परंपरा के ऐसे लेखक हैं जिन्होंने उत्तर भारत के द्विजों की आर्य श्रेष्ठता और मर्दवादी दंभ, राष्ट्रवाद, ब्राह्मणवाद, वर्ण-जाति व्यवस्था, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और शोषण-अन्याय के सभी रूपों को चुनौती दी. वर्चस्व, अन्याय, असमानता और दासता का कोई रूप उन्हें स्वीकार नहीं था. उनकी आवेगात्मक अभिव्यक्ति पढ़ने वालों को हिला देती है. तर्क-पद्धति, तेवर और अभिव्यक्ति की शैली के चलते उन्हें यूनेस्को ने 1970 में “दक्षिणी एशिया का सुकरात” कहा था.
पेरियार 1920 से 1925 तक कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़े रहे. वह औपचारिक तौर पर 1920 में कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए और 1920 और 1924 में वह तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष और 1921 और 1922 में उसके सचिव रहे. 

इस दौरान उन्होंने गांधी के सशक्त सहयोगी के रूप में काम किया लेकिन कांग्रेस और गांधी के साथ काम करते हुए बहुत जल्दी उन्हें अहसास हो गया कि यह पार्टी और गांधी उत्तर भारतीय आर्य-द्विज मर्दों के वर्चस्व को कायम रखने का उपकरण हैं. उन्होंने कांग्रेसी पार्टी के भीतर काम करने के अपने अनुभवों के बारे में लिखा :
जब मैं तमिलनाडु कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष था, तो मैंने 1925 के सम्मेलन में एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया था. उस प्रस्ताव में मैंने जातिविहीन समाज के निर्माण का प्रस्ताव किया था. मेरे मित्र चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) ने इसे अस्वीकृत कर दिया था. मैंने यह भी अनुरोध किया था कि कांग्रेस के विभिन्न पक्षों और क्षेत्रों में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व (वंचित एवं अल्पसंख्यक तबकों के लिए आरक्षण) का पालन किया जाना चाहिए. लेकिन यह प्रस्ताव भी विषय समिति में थिरु वि. का. (एक सम्मानित तमिल विद्वान कल्यानासुन्दरानर) के द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया. तब मुझे अपने प्रस्ताव के समर्थन में 30 प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर प्राप्त करने के लिए कहा गया था. श्री एस. रामानाथन ने 50 प्रतिनिधियों से हस्ताक्षर प्राप्त कर लिए. तब सर्वश्री सी. राजगोपालाचारी, श्रीनिवास आयंगर, सत्यमूर्ति और अन्य लोगों ने अपना प्रतिरोध दर्ज कराया. उन्हें डर था कि अगर मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया, तो कांग्रेस खत्म हो जाएगी. 

बाद में यह प्रस्ताव थिरु वि. का. और डॉ. पी. वरदाराजुलू के द्वारा रोक दिया गया. ब्राह्मण बहुत खुश हुए. इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे सम्मेलन में बोलने की इजाजत भी नहीं दी.
पेरियार ने बाद में कांग्रेस के बारे में लिखा, “कांग्रेस पार्टी से अकेले ब्राह्मण और धनी लोग ही लाभ उठा रहे हैं. यह आम आदमी, गरीब आदमी और श्रमिक वर्गों के लिए अच्छा काम नहीं करेगी. यह बात मैं काफी लम्बे समय से कह रहा था.”
कांग्रेस के अध्यक्ष या सचिव के रूप में तमिलनाडु में ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों के वर्चस्व को तोड़ने की हर कोशिश को कांग्रेस पार्टी पर अपना वर्चस्व कायम रखने वाले द्विज मर्दों ने नाकाम कर दिया. इतना ही नहीं, गांधी ने स्पष्ट शब्दों में तमिलनाडु में सार्वजनिक तौर पर वर्ण-व्यवस्था की महानता और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की घोषणा की. भीखू पारेख ने अपनी किताब कोलेनिज्म, ट्रेडिशन एंड रिफॉर्म : एनालिसिस ऑफ गांधी पोलिटिकल डिस्कोर्स में गांधी को उद्धृत करते हुए बताया है कि गांधी ने कहा था, “वर्णाश्रण धर्म अभिशाप नहीं है; बल्कि यह उन बुनियादों में से एक है, जिन पर हिंदू धर्म टिका हुआ है और यह (वर्णाश्रम धर्म) बताता है कि धरती पर जन्म लेने का इंसान का उद्देश्य क्या है? गांधी आगे कहते हैं, “ब्राह्मण हिंदू-धर्म और मानवता के सबसे खूबसूरत फूल हैं.’ वह आगे अपनी बात पर जोर देते हुए कहते हैं, “मुझे इनके (ब्राह्मणों) लिए कुछ करने की जरूरत नहीं है. ये अपनी हिफाजत खुद ही अच्छी तरह कर सकते हैं. ये पहले भी बहुत सारे तूफानों का सामना कर चुके हैं. मुझे गैर-ब्राह्मणों से सिर्फ इतना कहना है कि वे इन फूलों ( ब्राह्मणों) को उनकी खुशबू और चमक के साथ रौंद देने की कोशिश कर रहे हैं.”

पेरियार ने वामपंथियों के साथ मिलकर भी काम किया लेकिन उन्होंने देखा कि वामपंथियों द्वारा जाति, पितृसत्ता और धर्म के गठजोड़ की उपेक्षा की जा रही है. वामपंथियों की वर्ग की यांत्रिक यूरोपीय धारणा, इतिहास की एक रेखीय आर्थिक व्याख्या और जाति, पितृसत्ता, धर्म, राष्ट्रवाद और वर्ग के गठजोड़ को समझ पाने में नाकामी के चलते पेरियार को उनसे भी अपना रास्ता अलग करना पड़ा. पेरियार ने भारत के वामपंथियों के बारे में लिखा, “हमारे देश में साम्यवाद की जितनी भी बातें हो रही हैं, वे बकवास हैं... वे जातिवाद की दुष्टता और प्रतिक्रियावादी गांधी के दुष्प्रचार के कुप्रभावों के प्रति चिंतित नहीं लगते. वे उस राजाजी के प्रति चिंतित नहीं हैं जिनकी चिंता सिर्फ यह है कि ब्राह्मण कैसे सुख से जीवित रहेंगे. वे उस कांग्रेस पार्टी के बारे में चिंतित नहीं हैं, जो वर्णाश्रम धर्म को सही ठहराती है.” बाद में पेरियार ने तमिलनाडु में गैर-ब्राह्मणवाद की अगुवा जस्टिस पार्टी के साथ भी मिलकर काम किया.

जस्टिस पार्टी की स्थापना सन 1916 में (आधुनिक चेन्नई) में हुई थी. तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन की औपचारिक शुरुआत 1916 में तब हुई, जब जस्टिस पार्टी ने गैर-ब्राह्मण घोषणा-पत्र जारी किया. ब्राह्मणवाद बनाम गैर-ब्राह्मणवाद का संघर्ष ही इस घोषणा-पत्र का मूल स्वर था. मद्रास प्रेसीडेंसी में ब्राह्मणों का वर्चस्व किस कदर था, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1912 में वहां ब्राह्मणों की आबादी सिर्फ 3.2 प्रतिशत थी, जबकि 55 प्रतिशत जिला अधिकारी और 72.2 प्रतिशत जिला जज ब्राह्मण थे. मंदिरों और मठों पर ब्राह्मणों का कब्जा तो था ही जमीन की मिल्कियत भी उन्हीं लोगों के पास थी. इस प्रकार तमिल समाज के जीवन के सभी क्षेत्रों में ब्राह्मणों का वर्चस्व था. इस वर्चस्व को तोड़ने के लिेए ब्राह्मण विरोधी आंदोलन शुरू हुआ. 1915-1916 के आस-पास मंझोली जातियों की ओर से सी.एन. मुलियार, टी. एन. नायर और पी. त्यागराज चेट्टी ने जस्टिस आंदोलन की स्थापना की थी. इन मंझोली जातियों में तमिल वल्लाल, मुदलियाल और चेट्टियार प्रमुख थे. इनके साथ ही इसमें तेलुगु रेड्डी, कम्मा, बलीचा नायडू और मलयाली नायर भी शामिल थे. 1920 में मोंटेग-चेम्सफोर्ड सुधारों के अनुसार मद्रास प्रेसीडेंसी में एक द्विशासन प्रणाली बनायी गई जिसमें प्रेसीडेंसी में चुनाव कराने के प्रावधान किए गए. इस चुनाव में जस्टिस पार्टी ने भाग लिया और एक गैर-ब्राह्मणों के नेतृत्व और प्रभुत्व वाली जस्टिस पार्टी सत्ता में आई. इस पार्टी के नेतृत्व में पहली बार तमिलनाडु में 1921 में सरकारी नौकरियों में गैर ब्राह्मणों के लिए आरक्षण लागू हुआ.

लेकिन पेरियार ने देखा कि जस्टिस पार्टी तमिलनाडु में ब्राह्मणों के राजनीतिक वर्चस्व को तोड़कर गैर-ब्राह्मणों के राजनीतिक वर्चस्व को तो कायम करना चाहती है, मगर वर्चस्व और अन्याय के अन्य रूपों के खिलाफ वह चुप रहती है जबकि वह एक ऐसे क्रांतिकारी बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे थे जिसमें वर्चस्व और अन्याय के सभी रूपों का खात्मा हो जाए और ऐसी दुनिया का निर्माण हो जहां किसी तरह का अन्याय और शोषण न हो. उन्होंने अपने आंदोलन को आत्मसम्मान-आंदोलन ( सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट) नाम दिया. पेरियार ने अपनी पत्रिका ‘कुदी आरसू’ में 20 अक्टूबर 1945 को लिखा कि “देश में बहुत सारे आंदोलन चल रहे हैं... कांग्रेस पार्टी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष कर रही है. जस्टिस पार्टी ब्राह्मणों के राजनीतिक वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रही है. आदि द्रविड़ पार्टी उच्च जातीय हिंदुओं के वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रही है और वर्कर्स पार्टी पूंजीपतियों के वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रही है. इस तरह हर एक पार्टी का उद्देश्य वर्चस्व के किसी एक रूप का खात्मा करना है. लेकिन, यदि कोई पार्टी वर्चस्व के सभी रूपों के खिलाफ एक साथ संघर्षरत है, तो वह आत्मसम्मान-आंदोलन है.”

पेरियार भारत में चल रहे स्वराज आंदोलन के उद्देश्य के संदर्भ में प्रश्न करते हैं :
हम जोर-शोर से स्वराज की बात कर रहे हैं. क्या स्वराज आप तमिलों के लिए है या उत्तर भारतीयों के लिए है? क्या यह आपके लिए है या पूंजीवादियों के लिए है? क्या स्वराज आपके लिए है या कालाबाजारियों के लिए है? क्या यह मजदूरों के लिए है या उनका खून चूसने वालों के लिए है?
अपने आत्मसम्मान-आंदोलन के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए पेरियार लिखते हैं, “आत्मसम्मान आंदोलन का मकसद उन ताकतों का पता लगाना है, जो हमारी प्रगति में बाधक बनी हुई हैं. यह उन ताकतों का मुकाबला करेगा, जो समाजवाद के खिलाफ काम करती हैं. यह समस्त धार्मिक प्रतिक्रियावादी ताकतों का विरोध करेगा.”

पेरियार का भविष्य की दुनिया का सपना मार्क्स-एंगेल्स के साम्यवाद के सपने से मेल खाता है. अपने लेख ‘भविष्य की दुनिया’ में अपने आदर्श समाज की परिकल्पना प्रस्तुत करते हुए उन्होंने तमिल पुस्तक इनि वारुम उल्लगम में लिखा :
नए विश्व में किसी को कुछ भी चुराने या हड़पने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी. पवित्र नदियों जैसे कि गंगा के किनारे रहने वाले लोग उसके पानी की चोरी नहीं करेंगे. वे केवल उतना ही पानी लेंगे, जितना उनके लिए आवश्यक है. भविष्य के उपयोग के लिए वे पानी को दूसरों से छिपाकर नहीं रखेंगे. यदि किसी के पास उसकी आवश्यकता की वस्तुएं प्रचुर मात्रा में होंगी, तो वह चोरी के बारे में सोचेगा तक नहीं. इसी प्रकार किसी को झूठ बोलने, धोखा देने या मक्कारी करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. क्योंकि, उससे उसे कोई प्राप्ति नहीं हो सकेगी. नशीले पेय किसी को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे. न कोई किसी की हत्या करने का ख्याल दिल में लाएगा. वक्त बिताने के नाम पर जुआ खेलने, शर्त लगाने जैसे दुर्व्यसन समाप्त हो जाएंगे. उनके कारण किसी को आर्थिक बरबादी नहीं झेलनी पड़ेगी.’’

इसी किताब में वह आगे लिखते हैं, ‘‘पैसे की खातिर अथवा मजबूरी में किसी को वेश्यावृत्ति के लिए विवश नहीं होना पड़ेगा. स्वाभिमानी समाज में कोई भी दूसरे पर शासन नहीं कर पाएगा. कोई किसी से पक्षपात की उम्मीद नहीं करेगा. ऐसे समाज में जीवन और काम-संबंधों को लेकर लोगों का दृष्टिकोण उदार एवं मानवीय होगा. वे अपने स्वास्थ्य की देखभाल करेंगे. प्रत्येक व्यक्ति में आत्मसम्मान की भावना होगी. स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करेंगे और किसी का प्रेम बलात् (जबरन) हासिल करने की कोशिश नहीं की जाएगी. स्त्री-दासता के लिए कोई जगह नहीं होगी. पुरुष सत्तात्मकता मिटेगी. दोनों में कोई भी एक-दूसरे पर बल-प्रयोग नहीं करेगा. आने वाले समाज में कहीं कोई वेश्यावृत्ति नहीं रहेगी. “

भविष्य के जिस समाज का सपना पेरियार देखते हैं, उसकी भारत में स्थापना की पहली शर्त वह अंबेडकर की तरह जाति के विनाश को मानते थे. उनका मानना था कि वर्ण-जाति की रक्षा के लिए हिंदू-धर्म की स्थापना की गई. वर्ण-जाति की रक्षा के लिए जन्म लेने वाले ईश्वरों को गढ़ा गया है और मनुस्मृति, रामायण, गीता और पुराणों की रचना की गई है. उन्होंने लिखा, “इस जाति-व्यवस्था ने भारतीय समाज को जड़ और बर्बर समाज में तब्दील कर दिया है.” 1959 में उन्होंने लिखा, “हमारे देश में जाति के विनाश का मतलब है- भगवान, धर्म, शास्त्र और ब्राह्मणों (ब्राह्मणवाद) का विनाश. जाति तभी खत्म हो सकती है, जब ये चारों भी खत्म हो जाएं. यदि इसमें से एक भी बना रहता है, तो जाति का विनाश नहीं हो सकता.”

लेकिन ब्राह्मणों के खात्मे से उनका सीधा मतलब ब्राह्मणवाद के खात्मे से है. इस संदर्भ में वह लिखते हैं कि उन्हें “ब्राह्मण-प्रेस द्वारा ब्राह्मण-विरोधी के रूप में चित्रित किया गया है. किन्तु, मैं व्यक्तिगत रूप से किसी भी ब्राह्मण का दुश्मन नहीं हूं. एकमात्र तथ्य यह है कि मैं ब्राहमणवाद का धुर-विरोधी हूं. मैंने कभी नहीं कहा कि ब्राह्मणों को खत्म किया जाना चाहिए.”

पेरियार ने गैर-द्विजों और महिलाओं से आह्वान किया कि वे “उस ईश्वर को नष्ट कर दें, जो तुम्हें शूद्र कहता है. उन पुराणों और महाकाव्यों को नष्ट कर दो, जो हिंदू ईश्वर को सशक्त बनाते हैं”.

पेरियार धर्म को प्रभुत्व और अन्याय का पोषक मानते हैं. वह सभी धर्मों को खारिज करते हुए विज्ञान और बुद्धिवाद का समर्थन करते. वह धर्माचार्यों और विज्ञान के समर्थक बुद्धिवादियों की तुलना करते हुए लिखते हैं, “धर्माचार्य सोचते हैं कि परंपरा-प्रदत्त ज्ञान ही एकमात्र ज्ञान है; उसमें कोई भी सुधार संभव नहीं है. अतीत को लेकर जो पूर्वाग्रह और धारणाएं प्रचलित हैं, वे उसमें किसी भी प्रकार के बदलाव के लिए तैयार नहीं होते.”

पेरियार ने गैर-द्विजों और महिलाओं से आह्वान किया कि वे “उस ईश्वर को नष्ट कर दें, जो तुम्हें शूद्र कहता है. उन पुराणों और महाकाव्यों को नष्ट कर दो, जो हिंदू ईश्वर को सशक्त बनाते हैं.” उनका मानना था कि “हिंदू-धर्म और जाति-व्यवस्था नौकर और मालिक का सिद्धांत स्थापित करते हैं.”
पेरियार ने ऐसा केवल कहा नहीं, बल्कि अपने अनुयायियों के साथ ऐसा किया भी. उन्होंने मनुस्मृति और रामायण को जलाया. रामायण की हकीकत को सामने लाने के लिए उन्होंने रामायण का एक मुकम्मल पाठ ‘रामायण पादीरंगल’ प्रस्तुत किया जो 1959 में अंग्रेजी भाषा में में ‘द रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. इसका हिंदी अनुवाद 1968 में ‘सच्ची रामायण’ के नाम से ललई सिंह यादव ‘पेरियार’ ने प्रकाशित किया; जिसका अनुवाद राम आधार ने किया था.

पेरियार की नजर में रामायण कोई धार्मिक किताब नहीं है. यह एक राजनीतिक ग्रंथ है; जिसका उद्देश्य आर्यों का अनार्यों पर, ब्राह्मणों का गैर-ब्राह्मणों पर, पुरुषों का महिलाओं पर वर्चस्व और वर्चस्व के अन्य रूपों को न्यायसंगत ठहराना है. सच्ची रामायण की भूमिका में पेरियार लिखते हैं, “इनके मूल आख्यानों का सावधानी से विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाए, तो पता चलता है कि जो भी घटनाएं हुईं, वे असभ्य और बर्बर थीं” और इनकी कथाओं को इस तरह से लिखा गया है कि ब्राह्मण दूसरों की नजर में महान दिखें; महिलाओं को दबाया जा सके और उनको दासी बनाया जा सके. इनका उद्देश्य उनकी रूढ़ियों और मनु की संहिता को समाज में लागू कराना है.”

पेरियार पितृसत्ता के मूल ढांचे को सीधी चुनौती देते हैं. पेरियार की क्रांतिकारी प्रगतिशील सोच सबसे ज्यादा उनके स्त्री संबंधी चिंतन में सामने आती है. पेरियार महिलाओं की ‘पवित्रता’ या स्त्रीत्व की दमनकारी अवधारणा के कटु-विरोधी थे. उनका कहना था कि “यह मान्यता कि केवल महिलाओं के लिए पवित्रता आवश्यक है, पुरुषों के लिए नहीं; इस विचार पर आधारित है कि महिलाएं पुरुषों की संपत्ति हैं. यह मान्यता वर्तमान में महिलाओं को निकृष्ट दर्जे का साबित करने की द्योतक है.” पेरियार महिलाओं के शिक्षा प्राप्त करने, काम करने, अपने ढंग से जीने और प्यार करने के अधिकार के जबरदस्त समर्थक थे.

इस मुद्दे पर उनके विचार इतने क्रांतिकारी थे कि द्रविड़ कड़गम के उनके कई घोर समर्थकों को भी वे रास नहीं आए और इसलिए पार्टी ने न तो उनका प्रचार किया और न ही उनके अनुरूप आचरण. जैसा कि स्त्रीवादी व पेरियार के विचारों की अध्येता वी. गीता ने हाल में 19वीं सदी की समाज-सुधारक सावित्रीबाई फुले की स्मृति में आयोजित एक परिचर्चा में भाग लेते हुए कहा- ‘‘पेरियार के क्रांतिकारी विचारों को दरकिनार कर उन्हें केवल आरक्षण, भौंडे नास्तिकवाद और कटु ब्राह्मण-विरोध के प्रतिपादक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और जाति, ऊंच-नीच, लिंग व सेक्स आदि से जुड़े प्रश्नों पर उनके विचारों को मानो किसी अलमारी में बंद करके भुला दिया गया है.”

श्रम और पूंजी के संघर्ष में पेरियार श्रमिक वर्ग के साथ खड़े होते हैं. वह साफ शब्दों में लिखते हैं कि “यह श्रमिक ही है, जो विश्व में सब कुछ बनाता है. लेकिन, यह श्रमिक ही चिंताओं, कठिनाइयों और दुःखों से गुजरता है.” पेरियार ने एक ऐसे समाज की कल्पना की जिसमें शोषण और अन्याय का नामो-निशान नहीं होगा. उस दुनिया का खाका खींचते हुए वह लिखते हैं, “एक समय ऐसा आएगा, जब धन-संपदा को सिक्कों में नहीं आंका जाएगा. न सरकार की जरूरत रहेगी. किसी भी मनुष्य को जीने के लिए कठोर परिश्रम नहीं करना पड़ेगा. ऐसा कोई काम नहीं होगा, जिसे ओछा माना जाए या जिसके कारण व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखा जाए.”
बर्बर माध्यकालीन मूल्यों और विचारों में जी रहे भारत को पेरियार के दर्शन, चिंतन और विचारों की सख्त जरूरत हैं.

(कारवां में प्रकाशित, द्वारा–डॉ. सिद्धार्थ रामू)

रविवार, 28 जून 2020

Book :Synthetic Solution : Philosophical Approach By Chetan Kumar



A common question always arises in the minds of every college student in India that relates to our own way of  development. We are continuously gathering all kinds of knowledge from Europe and America. If we study Indian philosophy, sciences, mathematics, etc., we get the ancient knowledge but not the new concepts and ideas which define our life in modern times. Even our traditional psychologists and philosophers like Sad Guru and Ravishankar, who are known as spiritual masters, simply serve us the old traditions of Indian thought. Even Gandhiji followed the same traditional principle of non-violence which emerged from Syadvada theory of Jaina. However, he synthetized this theory with civil disobedience and satyagrah. a. These theories of Gandhi are based on the ideas Leo Tolstoy and Christian ethics.
In the similar manner I will synthesize Indian and western concepts at multiple levels in different chapters. I had chosen Descartes mind-body problem, and will be trying to resolve it with Veda ntic and Samkhya approach under the impression of Jaina philosophy.
I have no intention of showing inadequacies in western philosophy. In fact, it was the greatness of Descartes from whose introspection emerged such an interesting philosophical problem. This problem can also be seen in Greek philosophy, in the book Phaedo of Plato. Moreover, the philosophers just prior to Descartes pro- pounded the same ideas, but the credit for the formulation of ‘I think therefor I am’ goes to Descartes alone.
Actually, we synthesis and interpret multiple ideas to arrive  at  something  new.    It  is  the  reason  that  the  newness  is  an  invention  and  not  a  Discovery.  By  analytical approach  we  can  discover  the  simple  substances  of  a  new invention. In  this  way,  I  attempt  to  show  that  Indian  Philosophy  is  rich,  and  there  is  no  truth  in  the  perception  that nothing  new  has  been  found  in  the  Indian  philosophy. We  are  obliged  to  develop  new  ideas  and  concepts through  the  process  of  synthesis. An  enormous  literature  had  emerged  in  Europe  to delineate  and  resolve  the  ‘Mind  body  problem’  of Descartes,  all  of  them  seek  to  define  the  scope  of  the  problem.  However,  most  of  them  do  not  fulfill  their  objectives.  Hence,  I  make  an  effort  to  resolve  the  problem and  I  will  present  a  synthetic  solution  of  the  Mind-body problem  of  Descartes  from  all  possible  angles.
Chetan Kumar (PhD), Research Scholar

Department of Philosophy University of Delhi.

रविवार, 7 जून 2020

Epicureanism, Charvaka and Consumerism: A Search for Philosophy of Happiness- Dr. Desh Raj Sirswal


Abstract:
Epicurus was a Greek philosopher interested in pleasure or pursuit of it more than other ideals. He said, "No pleasure in itself is a bad thing, but the things that produce certain pleasures involve disturbances many times greater than the pleasures themselves." Epicurus tells us that the knowledge of which pleasures are good for us is wisdom. 
While this sometimes led to a negative view of his philosophy, in many regions of the world today the reality is that his thinking has been very advanced and developed, leading to his ideas becoming highly influential in modern thought. His simple philosophies of avoiding pain, living a simple life, and learning has made much of his philosophy appealing and influential.
An important Indian philosophy called "Charvaka" is that this world is the only reality. Out of the four human values — Dharma, Artha, Kama, and Moksha — they advocate the pursuit of karma only, and Artha merely as a means of facilitating the purpose. For Charvaka, the goal of human life is to achieve the maximum amount of pleasure in this life and to avoid as much pain as possible. Good life is the most enjoyable life. Good action is one that leads to a balance of pleasure, and bad action is one that causes more pain than pleasure.
Today, consumerism is pervasive, the real spirit for any developing economy is to develop consumerism-driven products and marketing practices, and it is inevitable that the interests of consumers in general will be safeguarded. Consumerism believes that personal well-being and happiness depends to a very large extent on the level of personal consumption, in particular on the purchase of material goods. The idea is not simply that well-being depends on a standard of living above a certain threshold, but that consumption and material possessions are at the center of happiness. It is an attempt of this paper to see the relationship between these philosophies and to try to find common characteristics that lead man to live a happy and satisfying life.
Key-Words: Epicurus, Charvaka, Pleasure, Happiness and Consumerism. 
Philosophy of Happiness
Well-being or happiness is pursued in every culture by individuals and society. Eastern and western cultures have understood well-being and have developed ways and means of promoting well-being over the years.
Philosophers of all ages — from Socrates to Buddha to Krishna to the authors of the Kabbalah of Judaism — were more than willing to advise others on how to live a happy life. Socrates believed that reason was the way to a good life.
He also told his followers to look inward (i.e. do some kind of soul-searching) to find happiness. Socrates was so convinced of the power of introspection that he famously declared that "unexamined life is not worth living." Plato, a student of Socrates, wrote a number of famous dialogs on the pursuit of pleasure and the philosophy of happiness, using his teacher as the central character.
Scholars continue to debate the relationship between the original teachings of Socrates and Plato's own ideas, but the following are their deepest thoughts on pleasure and happiness:
+ All human beings naturally desire happiness.
+ Happiness is obtainable and teachable through effort.
+ Happiness does not depend on material things but on how we use material goods (wisely or unwisely).
+ Happiness depends on learning to harmonize our desires. We do this by giving more weight to our desire for knowledge and virtue than to our desire for physical pleasures.
+ Virtue and happiness are inextricably linked; it is impossible to have one without the other.
+ The pleasures one gets from pursuing virtue and knowledge are on a higher plane than the pleasures we get from satisfying our baser desires. Pleasure is not the goal of existence, but it is an integral part of being virtuous.[1]
Epicurus & Charvaka: A Comparison
A century after Socrates and Plato, another Greek philosopher named Epicurus would expand on the argument of positive and negative pleasures. Positive pleasure, he said, is nothing more than the removal of pain. If you're thirsty, you can drink a glass of water to get some relief. Negative pleasure is a state of harmony where you no longer feel any pain and therefore do not require a positive pleasure (like a cool drink) to get rid of the pain.
He argued that positive pleasure always falls on a scale of good to great. This kind of pleasure can also be frustrating, because there will always be a contrast between the state you are in now and the "higher" state that would make your current experience less desirable. If you get more pleasure from sex than from eating, for example, eating doesn't seem to be a pleasure (unless you're eating during sex, I suppose). Epicurus concluded that the true state of happiness is a state of negative pleasure, an oxymoron that is essentially the absence of unfulfilled desires. (This idea is similar to the Buddhist concept of achieving Nirvana through the elimination of desire — more on that later[2].
Moving on to a comparison between the Charvaka school of thought and the Epicurean school, one of the major similarities between the two schools was their shared philosophy of materialism. Epicurus argued that the entire universe, including human beings as well as the gods themselves, was composed of nothing but atoms (extremely tiny, indestructible particles) and "void" or empty space. [3] 
This view of the universe is elaborated quite long and eloquently by Lucretius (1st century B.C.E.) in his poem De Rerum Natura ("On the Nature of Things"). In this poem, Lucretius argues that the narrative of divine creation is fundamentally illogical, because "nothing can be created out of nothing" and nothing that is created cannot be reduced to nothing. Thus, in Lucretius' view, the universe is eternal and uncreated, and all natural phenomena can be explained in terms of interactions between matter. The Charvakas also held similar views on the composition of the universe and the natural world.
The Charvakas believed that the entire universe was made up of four elements – fire, earth, water , and air – and that all phenomena, without exception, were the result of interaction between the elements. According to the Charvakas, even human consciousness and intelligence arise only from natural elements, and intelligence is destroyed when the body is destroyed. [4] This was in contrast to other Indian schools of thought, which argued that souls could exist separately from the body and carry intelligence with them after death; on the other hand, the Charvakas rejected the very notion that separate souls could exist, and considered the physical death of a human being to also mark the permanent end of that human consciousness.
Both the Epicureans and the Charvakas criticized religion and denounced practices that they considered irrational and superstitious, but their exact religious philosophy differed in some ways. Despite being staunch materialists, as described above, the Epicureans did not , in fact, reject the existence of gods. [5] Instead, they believed that the gods were "blessed beings" who lived a life of "perfect pleasure" and did not interfere in the human realm; thus, according to Epicurean philosophy, human beings should set aside their fear of "divine punishment" and instead look to the gods as positive role models for a life of pleasure and fulfillment.
The Charvakas, on the other hand, were explicitly atheistic in their philosophy, rejecting not only the concept of the gods, but also the concept of the svarga (heaven), the apavarga (liberation), and the re-incarnation of the soul (atma), as well as the concept of the caste system (chaturvarna). [6]  They were particularly critical of the Vedas and the sacrificial rituals associated with the Orthodox sects, sarcastically asking, "If the beast slain in the sacrificial rite goes to heaven, then why not offer a sacrifice to your own father? "[7]" The Charvakas regarded the Vedas as nothing more than the “incoherent rhapsodies of knaves” that suffer from “untruth, self-contradiction, and tautology”, and denounced the associated Vedic religious rituals as “mere means of livelihood for those [i.e. the Brahman priests] who have neither manliness nor sense.” [8] Perhaps the single greatest similarity between the Epicurean and Charvaka schools of thought, however, lies in their common philosophy of how to pursue "happiness" in their daily lives. The Epicureans believed that "pleasure" was the highest form of good, defined in particular as freedom from pain in the body (aponia) and freedom from anxiety and disturbance (ataraxia).[9]
According to Epicurus, true happiness comes from taking pleasure in fulfilling our basic desires for food , drink, shelter and clothing, and not from seeking things that are more difficult to obtain (like fancy food, immense wealth, personal fame and honor, etc.), which tend to increase anxiety and are therefore detrimental to one's happiness. Similarly, the Charvakas believed that the ultimate goal of life was to enjoy sensual pleasure and avoid pain. [10] 
Because they did not believe in either the afterlife or the possibility of the soul returning to the world in a new incarnation, the Charvakas emphasized that one should enjoy life to the fullest in the present existence, since the present existence was (in their view) the only opportunity for a human being to live. “While life remains,” goes a Charvaka saying, “let a man live happily, let him feed on butter even if he runs into debt. For when the body becomes ash, how can it ever return again?” [11]
Finally, both the Epicureans and the Charvakas shared the similar fate of being relegated to the realm of the "Fringe Thinkers" in their respective civilizations, and of being misled by their opponents for centuries. In later years, the Epicureans were seen as "wild, profligate hedonists" who could not control their urge to seek pleasure. [12] 
This is a serious distortion of the actual philosophy of Epicurus, which underscores self-control in seeking pleasure (since the careful choice of pleasures is itself important for maximizing happiness, and over-indulgence can upset ataraxia) and a simple lifestyle free from unnecessary luxuries, as described above.
The Charvakas, though somewhat less principled than the Epicureans, were similarly subjected to vicious criticism from orthodox writers in India, caricatured as lowly, uncouth, and licentious. An example of this depiction comes from the 15th century Indian writer Gunaratna, who says in a commentary on a much earlier Indian philosophy compendium: 
“They [the Charvakas] take spirituous drinks and meat and also copulate with those unfit to be sexually approached, like the mother, etc. Every year, on a particular day, they assemble and copulate randomly with women. They do not consider dharma (ethical duty) to be any anything different from kama (sexual pleasure).” [13] Such portrayals were almost certainly stereotypic caricatures that had been composed long after the Charvakas had ceased to be an important force in Indian intellectual life, and were clearly intended to demean the Charvakas because of their highly non-traditional and dissident views.
The Epicurean school in the Greco-Roman world and the Charvaka school in ancient India have represented two similar philosophies that have arisen independently in two very different civilizations.Both schools of thought, though different in certain details (such as the existence or non-existence of gods), can be described as materialistic and rationalist philosophies that challenge the dominant ideologies and beliefs of their respective civilizations.While both eventually faded into history, the remnants left behind are indicative of a rich tradition of scepticism, free thinking, and rational research in both ancient India and the ancient Mediterranean world, and support the idea that rationalism is not the monopoly of any culture or civilisation, but is universal and common to humanity as a whole.
Philosophy of Consumerism:
Consumerism is pervasive; the real spirit for any developing economy is to develop consumer products and marketing practices. Consumerism is inevitable in order to protect the interests of consumers at large. As per the phrase of Ralph  Nadar  consumerism means "quality of life".[14] Consumerism believes that personal well-being and happiness depends to a very large extent on the level of personal consumption, in particular on the purchase of material goods. The idea is not simply that well-being depends on a standard of living above a certain threshold, but that consumption and material possessions are at the center of happiness. Consumer society is one in which people devote a great deal of time, energy, resources and thought to "consuming." The general view of life in a consumer society is that consumption is good, and more consumption is even better. 
Reference to this philosophy as Lokayata indicates the prevalent nature of this philosophy in contemporary society. Charvakas rejected the need for ethics or morals, and suggested that "while life remains, let a man live happily, let him feed on ghee even though he runs in debt".  Although people in India started using credit cards, home loans and car loans, their penetration is still very low. Loaning is still a taboo in rural India. Having a collection agent at your door is still considered a social stigma. Rural India does not have the concept of 'foreclosure' due to a bad loan. Philosophy has no boundary. Something that is most appealing can spread far and wide. It appears that American society has more Charvaks than its place of origin. This philosophy has never been propagated here. I, who promised to take loans again, turned to Charvak as soon as I got here. Who knows, hundreds of years down the line, which philosophy prevails in this part of the world? [16] 
If Epicurus and his followers were alive today, they would not complain about the excesses of the system, they would not fight publicity, but they would use it for their own ends. They wouldn't fight the stimulus of consumerism. They would give us all the information we needed to know how to live wisely. The central message of Epicurus seems more relevant to today's consumerist society than it did to its own. [17] And there are plenty of reasons to believe that happiness is much more inclusive than the so many things that we can buy. 
Just a message like this 'Happiness is not included' could not turn the tide of consumerism on its own, and you wouldn't have any evidence that people seeing the advertisement would surely stop shopping. But the fact remains, and we are confused, and if we knew what would make us happy, if we knew what we needed, there would be a few things we 'd be desperate to buy.
References:
1. Jodie Gould, The Philosophy of Happiness: What the World’s Wisest Minds Can Teach Us About Finding Pleasure in Everyday Life, ConsciousLifestyle Magazine, Cited on 29th January, 2018, https://www.consciouslifestylemag.com/philosophy-of-happiness-finding-pleasure-in-life/
2. Ibid.
3. Walter Englert, ed., Lucretius: On the Nature of Things (Newburyport, MA: Focus Pub., 2003), xi.
4. “The Carvaka System” in Madan Mohan Agrawal, ed., Sarvadarshanasamgraha of Madhavacharya (Delhi: Chaukhamba Sanskrit Pratishthan, 2002), 4-5.
5. Walter Englert, ed., Lucretius: On the Nature of Things (Newburyport, MA: Focus Pub., 2003), xiv.
6. Agrawal, Sarvadarshanasamgraha, 17.
7. Ibid, 18.
8. Ibid, 7-8.
9. Englert, On the Nature of Things, xv.
10. Madan Mohan Agrawal, ed., Sarvadarshanasamgraha of Madhavacharya (Delhi: Chaukhamba Sanskrit Pratishthan, 2002), 5.
11. Ibid, 19.
12. Englert, On the Nature of Things, xv.
13. Gunaratna, “Commentary on Haribhadra,” in Debiprasad Chattopadhyaya, ed., Carvaka/Lokayata, 267.
14. The Philosophy and History of Consumer Protection with special reference to India, http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/49008/5/05_chapter%202.pdf
15. Chapter 7 Consumerism, https://www.ssc.wisc.edu/~wright/Contemporary American Society/ Chapter%207%20--%20consumerism%20--%20Norton%20August.pdf
16. Amiya Ranjan Satapathy , Consumerism and Charvak,MyIndMakers,Sept.18,2015. https://myind.net/Home/viewArticle/consumerism-and-charvak
17. Epicurus view on Consumerism, http://paranormalis.com/threads/epicurus-view-on-consumerism.9404/

गुरुवार, 14 नवंबर 2019

गुरु नानक देव जी का मानवतावादी दर्शन (Humanist Philosophy of Shri Guru Nanak Devji )

डॉ देशराज सिरसवाल 


गुरु नानक देवजी सिखों के पहले गुरु थे। अंधविश्वास और आडंबरों के कट्टर विरोधी गुरु नानक जी का जन्मदिन कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है हालांकि उनका जन्म 15 अप्रैल 1469 को हुआ था। गुरु नानक जी पंजाब के तलवंडी नामक स्थान पर एक किसान के घर जन्मे थे। तलवंडी जोकि पाकिस्तान के लाहौर से 30 मील पश्चिम में स्थित है, गुरु नानक का नाम साथ जुड़ने के बाद आगे चलकर ननकाना कहलाया। इतिहास के अनुसार वे सम्पूर्ण विश्व में भ्रमण करते रहे और लोगों को आडम्बरभ्रम एवं अज्ञान से दूर कर उनका मार्गदर्शन करते रहे ताकि उनका परिचय ‘आत्मा’ और परमात्मा से हो सके एवं सर्वत्र प्रेम और भाईचारा प्रसारित हो सके, मानव और उनका समाज स्वस्थ रह सकें । उनके जीवन से जुड़े असंख्य प्रेरक प्रसंग हैं जो इन तथ्यों की सम्पूर्ण पुष्टि करते हैं इस शोध-पत्र का मुख्य विषय गुरु नानक देव जी के मानवतावादी दर्शन का अध्ययन करना है ।

गुरु नानक जी के उपदेश
गुरु नानक जी ने अपने अनुयायियों को दस उपदेश दिए जो कि सदैव प्रासंगिक बने रहेंगे। गुरु नानक जी की शिक्षा का मूल निचोड़ यही है कि परमात्मा एक, अनन्त, सर्वशक्तिमान और सत्य है। वह सर्वत्र व्याप्त है। मूर्ति−पूजा आदि निरर्थक है। नाम−स्मरण सर्वोपरि तत्त्व है और नाम गुरु के द्वारा ही प्राप्त होता है। गुरु नानक की वाणी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से ओत−प्रोत है। उन्होंने अपने अनुयायियों को जीवन की दस शिक्षाएं दीं जो इस प्रकार हैं− 
1. ईश्वर एक है। 
2. सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो। 
3. ईश्वर सब जगह और प्राणी मात्र में मौजूद है। 
4. ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता। 
5. ईमानदारी से और मेहनत कर के उदरपूर्ति करनी चाहिए। 
6. बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएं। 
7. सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा मांगनी चाहिए। 
8. मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से ज़रूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए। 
9. सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं। 
10. भोजन शरीर को जि़ंदा रखने के लिए ज़रूरी है पर लोभ−लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है।1
गुरू नानक सत्य के पुजारी थे और उन्होंने धर्म  का विवेचन करने के लिए जो कुछ कहा है, वह आडबंरयुक्त वचनों और वाक्छल से रहित  है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि ‘‘धर्म  के विषय में लंबी- चौड़ी बातें करने से कोई लाभ नहीं। सिद्धांत वही सच्चा है और ठीक माना जा सकता है, जो व्यवहार में लाया जा सके।’’2  चाहे कोई पूजा- पाठ, जप- तप योगादि कितना भी करे, पर नानक जी की दृष्टि  में यदि  वह लोगों का उपचार- पीड़ि़तों की सेवा नहीं करता तो वह सब महत्त्वहीन है। वे तिब्बत  तक गये थे और हिमालय  के दुगर्म प्रदेशों में पहुँचकर सिद्ध  योगियों  से भेंट की थी। उन सिद्धों  से भी उन्होंने यही कहा था कि ‘‘आप तो यहाँ मोक्ष की साधना में लीन है और वहाँ संसार की दशा यह है कि समय के समान घातक हो रहा है। शासक गण कसाई बन गए हैं। धर्म  पंख लगाकर उड़ गया है, चारों तरफ झूँठ की काली रात छाई हुई है, उसमें सच्चाई का चंद्रमा कहीं दिखाई नहीं देता है।3’’ सिख धर्म में सामाजिक जीवन मुल्यों पर बहुत बल दिया गया है. जैसा की गुरू नानक देब जी कहते हैं की “पहाड़ों , गुफा  कन्दराओं में जाकर अपने आपको (आत्म) खोजने की जरूरत नहीं”. केवल नेक कर्मों जैसे जरुरतमन्द की सहायता और समाज सेवा से ही व्यक्ति ओने आपको पहचान सकता है. व्यक्ति केवल परोपकार के द्वारा ही इंसानी भाईचारे को विकसित कर सकता है.     
सिख धर्म में परोपकार के नैतिक नियम को इन्सान का महत्वपूर्ण सद्गुण माना गया है इसे सिख नीतिशास्त्र का स्तम्भ माना गया है . परोपकार यानि दूसरों की भलाई . यह दो शब्दों के मेल से बना है पर यानि दूसरा , उप , उपसर्ग है कर यानि कि करना . पर +उप+कार= परोपकार अर्थात दूसरों की भलाई . इसके भी दो पक्ष हैं. दूसरों के प्रति की गई शारीरिक सेवा एवम अध्यात्मिक सेवा. गुरु नानक देव जी कहते हैं की “परोपकार ही सम्पूर्ण शिक्षा का सार है.”4 नानक जी मानते थे कि भलाई, सज्जनता आदि  का गुण मनुष्य में स्वभावतः होता है। पर वह अनुकूल स्थिति  न पाने के कारण छिपा  रहता है। सच्चे संतों, सद्गुरू का कत्तर्व्य है कि वह इस भलाई के तत्त्व से मनुष्य को पिरिचत करायें और उसके बढ़ाने में मदद करें। यही गुरू का सबसे बड़ा उपकार शिष्य  पर होता है, जिसके लिए  वह गुरू को भगवान् के तुल्य समझकर पूजता है। हम कह सकते हैं कि जात- पात के बंधनों, खान- पान में चौका- चूल्हे के नियमों  और छुआछूत की बीमारी को सबसे अधिक  पंजाब में ही त्यागा गया है। लंगर की प्रथा भी श्रद्धालुओं को अपनी मेहनत की कमाई से मानवता की सेवा में लगाने को प्रेरित करती है. दान और कर सेवा सिख धर्म में भौतिक एवम शारीरिक सेवा का एक उज्जवल पक्ष माना गया है.6
दक्षिण भारत में तो छूत- अछूत का प्रश्न आज भी एक समस्या के रूप में मौजूद है और वहाँ अब भी सामाजिक  कारणों से अछूतों के मारे जाने के समाचार आते रहते हैं। उत्तर- प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि हिंदी  भाषी प्रांतों में स्वामी दयानंद और महात्मा गाँधी के प्रचार कार्य  के फलस्वरूप इस प्रकार के भेद- भाव की तीव्रता कम हो गई है और यद्यपि प्रत्यक्ष रूप में स्वीकार तो नहीं किया  जाता, पर व्यवहार में अछूतों को बहुत कुछ सुविधाएँ  मिल  गई हैं। बंगाल में सौ- डढ़े सौ वर्ष पूर्व  ब्रह्म- समाज के प्रचार ने परिस्थिति  को बहुत कुछ बदल दिया है। इस प्रकार समाज में से विषमता  को मिटाकर  समता तथा एकीकरण का जो महान् कार्य  गुरू नानक ने उठाया था, वह आज फलता- फूलता नजर आ रहा है, यह कम संतोष की बात नहीं है।7 
मोक्ष प्राप्ति के लिए भी गुरुओं ने परोपकार पर ही बल दिया है. बौद्धमत की तरह ही सिख धर्म में भी कोई एक व्यक्ति निजी मोक्ष ले लिए प्रयत्न नहीं करता जैसे की बौधिसत्व अपने कर्मों द्वारा प्रकाश प्राप्त कर असंख्य लोगों के लिए निर्वाण का मार्ग खोल देता है. गुरु नानक देव जी के विचार में “सहज” भाव हुकुम की निहित स्वीकृति है और यह सिख धर्म का मूल सिद्धांत है जोकि वह रहस्यवादी अवस्था है जिसमें अकालपुरख की इच्छा को स्वीकार कर लिया है. इस तरह यह स=इन्सान द्वारा प्राप्त करने वाली उच्चता अध्यात्मिक अवस्था है. गुरू नानक देव जी के अनुसार, “सहज शब्द का अर्थ है सम्पूर्ण संतुष्टि. जैसे धीमी आंच पर पकाया गया व्यंजन अपनी खुशबु को धारण किये रहता है इसी तरह मन और शरीर को स्व अनुशासन में धीरे धीरे लाना व्यक्ति के भीतर छुपे शाश्वत शुभ को उजागर करना है.
नानक जी भगवान् के विराट् रूप के उपासक थे, इसीलिए उन्हें संसार के सब पदार्थ और प्राणी भगवान् के रूप में ही दिखाई पड़ते थे। जब हम सब उसी एक अनादि- तत्त्व के अंश हैं तो आपस में लड़ाई- झगड़ा, ईष्यार्- द्वेष कैसाउन्होने एक ऐसा संगठन बनाने का निश्चय किया, जिसमें धर्म को व्यापार की चीज न बनाया जाये और जिसमें धार्मिकता और जातीयता की दृष्टि  से किसी को छोटा- बड़ा न माना जाय। इसीलिए  उन्होंने पृथक्- पृथक् पूजा- उपासना के स्थान पर सामुदयिक उपासना का प्रचलन किया।  उन्होंने अपने इस सिद्धांत  को वव्यवहारिक  रूप देने का दूसरा कार्य  यह किया की  सब लोगों का खाना एक साथ बने और सब एक ही पंगत में बैठकर भोजन करें। गुरू नानक ने अपने यहाँ लंगर- प्रथा प्रचिलत करके इसकी जड़ ही काट दी। इस तरह हम देखते है की मानववाद की जो अव्धारानाएं हमें वर्तमान में मिलती है वैसा मानववाद गुरु नानक देव जी के दर्शन का आधार रहा है.

संदर्भ :
  1. 1. शुभा दुबे, “गुरु नानक देव जी के यह दस उपदेश अपनाएँ, जीवन सफल बनाएँ” ,  नवंबर 3,2017, https://www.prabhasakshi.com/articles-on-gods/adopt-ten-teachings-of-guru-nanak-dev-make-life-successful
  2. 2. गोपाल मिश्रा, श्री गुरु नानक देव के 10 अनमोल उपदेश, NOVEMBER 24, 2018, https://www.achhikhabar.com/2012/11/23/shree-guru-nanak-dev-ji-life-in-hindi/
  3. 3. वही.
  4. 4. डॉ शिवानी शर्मा , सिख नितिशास्त्र, फिलोसोफी, युसोल, पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़, 2011, पृष्ठ 30.
  5. 5. गुरू नानक की दार्शनिक  विचारधारा - गुरु नानक देव :: (All World Gayatri Pariwar), http://literature.awgp.org/book/guru_nanak_dev/v2.1
  6. 6. डॉ शिवानी शर्मा , सिख नितिशास्त्र, पृष्ठ 32.
  7. 7. गुरू नानक की दार्शनिक  विचारधारा, http://literature.awgp.org/book/guru_nanak_dev/v2.1




मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

The Dalit Movement in North India: Theory , Praxis and Challenges

The Dalit Movement in North India: Theory , Praxis and Challenges

Date: 
26-Nov-2018 to 28-Nov-2018

1. प्रस्तावित संगोष्ठी का शार्षक :
उत्तर भारत में दलित आंदोलन : सिद्धांत, व्यवहार एवं चुनौतियां
2. प्रस्तावित संगोष्ठी की संकल्पना
भारत में दलित आंदोलन की अवधारणा का आरम्भ गुलामी से मुक्ति की आंकाक्षाओं से हुआ है। इस संदर्भ में दलित आंदोलन ने न केवल दलित मुक्ति का प्रस्ताव रखा बल्कि उत्पीड़न और दलन की पीड़ा के शिकार आमजनों की मुक्ति की राह भी खोली है। राजनैतिक चेतना के उद्भव से पहले भारत में इस मुक्ति संघर्ष की परंपरा सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलनों के रूप में ही दिखाई देती है। लेकिन दलित मुक्ति के साथ-साथ व्यापक सामाजिक मुक्ति के लिए राजनीतिक चेतना का उद्भव आधुनिक भारत में ही संभव हुआ। यह दलित राजनीतिक चेतना जहाँ एक तरफ इतिहास और संस्कृति से निकली है वहीं यह हमारे समय के सामान्य नजरिये से ऊर्जा ग्रहण करती है। इसे हम बाबासाहेब डॉ.अम्बेडकर के लेखन और उनकी राजनीति में देख सकते हैं।
ब्रिटिश राज के विरूद्व भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान आज़ाद भारत में किसको कितनी आजादी मिली थी- के मुद्दों पर चल रही बहसों ने आधुनिक दलित आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार की जो वास्तव में कई विभिन्न आंदोलनों का समुच्चय है। जहाँ गाँधीवादी संघर्षां द्वारा दलितों की समस्याओं को सिर्फ समाज सुधार और कल्याण कार्यक्रमों तक सीमित रखा गया वहीं मार्क्सवादी विद्वानों ने अपने आपको वर्ग के प्रश्न तक सीमित रखा। इस सबके बीच, राष्ट्र और वर्ग से निकलकर दलित आंदोलन ने जाति आधारित अधीनस्थीकरण के बजाय अपने को मुक्ति के प्रश्न से जोड़ा। उत्तर औपनिवेशिक युग मेंं इस पर काफी जोर दिया जा रहा है। वास्तव में दलित आंदोलन सत्ता हथियाने, किसी प्रांत पर कब्जा करने या किसी राज्य के विस्तार का आंदोलन नहीं है। यह दलित समाज द्वारा अपनी गरिमा की रक्षा, सामाजिक शोषण और उत्पीड़न से छुटकारा पाने का आंदोलन है।
इस सबके बावजूद, राष्ट्रवादी एवं मार्क्सवादी नजरिये से प्रभावित मुख्यधारा की अकादमिक चिंताओं में दलित प्रश्न पर ध्यान नहीं दिया गया। मसलन, इतिहास को लीजिए। औपनिवेशिक इतिहास ने भारतीय समाज को अपरिवर्तनशील और रूढ़ समाज के रूप में चित्रित किया। इस प्रकार के इतिहास ने निम्नवर्गीय लोगों के संघर्ष एवं उनके आंदोलन को नगण्य माना एवं उनकी अवहेलना की और उसे एकीकृत राष्ट्र की कहानी में समाहित कर दिया। मार्क्सवादी इतिहास ने वर्ग को अपनी विश्लेषण की प्राथमिक इकाई माना है और इस तरह जाति का प्रश्न मार्क्सवादियो के लिए द्वितीयक ही रहा, जबकि जाति भारतीय समाज की एक विशेष प्रकार की वास्तविकता है। इसी प्रकार समाज विज्ञानों ने दलित प्रश्न को महत्त्व नहीं दिया।
दलित आंदोलनों ने इन विचारधाराओं द्वारा निर्मित कई मिथकों और शक्ति-संरचनाओं को तोड़ा है, जिससे वे इतने गहरे ढंग से जुड़े हैं कि उनकी उपस्थिति को सभी मान्यता दे रहे हैं। दलित आंदोलनों ने अपने संघर्षों के माध्यम से जाति आधारित शोषण को चुनौती दी है। दलितों के संघर्ष ने उन्हें मुख्यधारा के राजनीतिक शक्ति संरचना तंत्र में राह बनाने की ओर अग्रसर कर दिया है। उन्होंने परंपरागत शासक वर्गों पर सफलतापूर्वक दबाव भी बनाया है। इस कारण से, इन आंदोलनों और संघर्षां ने एकेडमिक क्षेत्र के बुद्धिजीवियों के एक हिस्से को इसके अध्ययन व समीक्षा हेतु बाध्य किया है। मुख्य रूप से दलित संघर्षां को केंद्र में रखने वाले दलित विमर्श ने समाज विज्ञान और मानविकी के सभी विषयों को प्रभावित किया है।
और बिल्कुल इसी समय, एक नवीन प्रकार की विद्वत्ता ने यह भी रेखांकित किया है कि पर्याप्त प्रगति के बावजूद दलित मुख्यधारा की राजनीति में दवाब समूह बनकर रह गए हैं। आमूलचूल सामाजिक परिवर्तन की धार कुंद पड़ती जा रही है। आज एक तरफ तो दलित आंदोलन में आंतरिक तनाव हैं तो दूसरी तरफ बाहरी चुनौतियाँ भी हैं। अन्य समस्याओं के साथ समाज में जाति को ज्यादा महत्व मिलना, लोकतांत्रिक और राज्य निर्देशित नीतियों की समस्या और वैश्वीकरण पूरे परिदृश्य को और भी जटिल बना रहे हैं। उत्तर अम्बेडकरवादी समकालीन दलित आंदोलन आगे तो गया है लेकिन वह नवीन दुविधाओं में फँस गया है।
इस परिप्रेक्ष्य में प्रस्तावित संगोष्ठी दलित आंदोलन से संबंधित नवीन शोधों और विचारों को एक साथ लाने का प्रयास है जिससे इसकी प्रकृति और व्यवहार, सफलताओं, दिक्कतों और चुनौतियों के बारे में बात की जा सके। विषय के विस्तार को देखते हुए इस
संगोष्ठी ने अपने आपको उत्तर भारत के दलित आंदोलन तक सीमित रखा है। लेकिन इसका आशय नहीं है कि इसने देश के दूसरे हिस्सों से इसके संबध को भुला दिया है।
निम्नलिखित प्रश्न एक दूसरे से संबद्ध हैं, इन उपविषयों के अंतर्गत संभावित शोधपत्र हो सकते हैं :
> दलित आंदोलनों से हम क्या समझ सकते है?
> उत्तर भारत में दलित आंदोलन का अब तक का क्या इतिहास रहा है?
> यह आंदोलन किन सिद्धांतों/विचारधाराओं/दृष्टिकोणों पर आधारित रहे हैं और इन्होंने दलित आंदोलन को कैसे रूप दिया और उसे आगे बढ़ाया है?
> उनका वास्तविक अनुभव क्या रहा है?
> उन्होंने किन समस्याओं का सामना किया है और उससे किस प्रकार मोलभाव किया है? और इससे उन्हें किस प्रकार की सफलताएँ मिली हैं?
> मुख्यधारा की राजनीति से दलित आंदोलन और दलित प्रश्न का संबंध कैसा रहा है?
> दलित आंदोलन की विविधता का क्या अर्थ और परिणाम रहा है?
> इतिहास और अस्मिता, सामाजिक परिवर्तन, लोकतंत्र और नागरिकता, राष्ट्र और राज्य, उदारीकरण और सांप्रदायिकता के मुद्दों से यह आंदोलन कैसे निपटते हैं?
> समकालीन दलित आंदोलन के विरोधाभास क्या हैं?
> उत्तर भारत के दलित आंदोलन को देश के अन्य भागों के दलित आंदोलन के साथ हम ठीक-ठीक कहाँ रख सकते हैं?
> जेंडर, वर्ग, अन्य पिछड़े वर्गां और आदिवासी जनों के प्रश्नों के साथ यह कैसे व्यवहार करता है?
> दलित प्रश्न और आंदोलन से समाज विज्ञान किस सीमा तक और किस तरीके से निपटता है?
> दलित अध्ययनों द्वारा किए गए हस्तक्षेप की प्रकृति क्या रही है? क्या इसे अपने आप में एक आंदोलन कहा जा सकता है?
> दलित प्रश्न और आंदोलनों को सांस्कृतिक व्यवहारों में किस प्रकार प्रस्तुत किया गया है?
उपर्युक्त उप विषयों पर शोधपत्र आमंत्रित किए जाते हैं। फौरी तौर पर इस गोष्ठी की संरचना और सत्रों के बारे में नीचे लिखा जा रहा है जिसे ध्यान में रखकर और पहले दिए गए प्रश्नों के आलोक में अपना शोधपत्र आगे बढ़ाएं।
उत्तर भारत के संदर्भ में
> दलित आंदोलनों का अध्ययन
> दलित आंदोलनों का इतिहास
> दलित आंदोलन में, और दलित आंदोलन का विचार
> दलित आंदोलन का व्यवहार, अनुभव और उसका प्रभाव
> दलित आंदोलनों की समस्याएँ, चुनौतियाँ और संभावनाएँ
> दलित आंदोलन में जेंडर, वर्ग, अन्य पिछड़े वर्गां और आदिवासी जनों के प्रश्न
> संस्कृति में दलित आंदोलन
> दलित आंदोलनों का देश के अन्य हिस्सों के आंदोलनों से संबंध और तुलनाएँ

तिथि : 26 से 28 नवम्बर 2018
स्थानः भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला
इस सगोष्ठी में सीमित संख्या में प्रतिभागियों को आमंत्रित किया जाएगा। इच्छुक प्रतिभागी अपने प्रस्तावित शोध पत्र के 500 शब्दों के शोध-सारांश और अपने आत्म-वृत्त को नीचे दिए गए ईमेल पर दिनांक 20 अक्टूबर 2018 तक भेज दें।

Dr. Ajay Kumar
Fellow
Indian Institute of Advanced Study
Rashtrapati Nivas, Shimla – 171005.
Mobile : 09415159762 E-mail: iiasajayk@gmail.com

Ms. Ritika Sharma
Academic Resource Officer
Indian Institute of Advanced Study
Rashtrapati Nivas, Shimla- 171005
Tel: 0177-2831385; +91-9044827297 (Mobile) Email: aro@iias.ac.in
चयनित प्रतिभागियों को संस्थान दिनांक 25 अक्टूबर 2018 तक आमंत्रण पत्र भेजेगा। यह संस्थान की नीति है कि वह सेमिनार की प्रोसीडिंग्स के बजाय शोधपत्र प्रकाशित करता है। इसलिए सभी आमंत्रित प्रतिभागियों से आशा की जाती है कि वे अपने पूर्ण, अप्रकाशित और मौलिक शोधपत्र संदर्भ सहित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान के अकादमिक संस्रोत अधिकारी को 20 नवम्बर 2018 तक भेज देंगे।
स्टाइल शीट के लिए संस्थान की बेबसाइट के इस पते पर जाएं : http://www.iias.org/ content/shss
सेमिनार की अवधि में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान प्रतिभागियों के ठहरने की व्यवस्था करेगा और वह भारत में आगमन के स्थान से लेकर शिमला तक वायुयान या रेल से आने-जाने का यात्रा व्यय भी अदा करेगा।
Link:
http://www.iias.ac.in/event/dalit-movement-north-india-theory-praxis-and-challenges

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

Positive Philosophy of Swami Brahmananda Saraswati


Abstract
Since ancient times India is a place of tradition of saints, rishis, gurus and religious traditions. There are several religious sects, philosophies, traditions etc. which emphasis on different types of ideologies which developed here time to time. Six orthodox systems, three heterodox systems and several traditions of Vedanta tradition played an important role in imparting religious, philosophical teachings in this region. Various devotional poets, religious mendicants, renowned men and women of spirituality, and local holy men and women wear no religious tags, and their teachings and lives continue to be an example to the common realm of humanity.  Beside this several social revolutionary or social thinkers spread their ideas for social, religious, educational changes in the society. Within them Raja Ram Mohan Roy, Jyotiba Phule, Mahatma Gandhi, Rabindranath Tagore, Swami Dayanand, Swami Vivekananda, Dr. B.R. Ambedkar, S. Radhakrishnan, Raman Maharishi etc. Swami Brahmananda Saraswati is one from the religious-Vedanta tradition who contributed through his religious teachings and social activities. Here we will study his basic ideas which are important for our society and nation.

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ü  “Positive Philosophy of Swami Brahmananda Saraswati” in Darshan Jyoti: Refereed Annual Philosophical Research Journal, Year 05, No.01, September, 2015-August-2016, pp. 124-130 (ISSN: 2249-1196).